पर्यावरण केंद्रित लोकतांत्रिक समाज : सथांल आदिवासी (खास तौर पर)
3 Aug, 2021
image credit: free press journal
वर्ष 2019 में पर्यावरण को लेकर दुनिया भर के लोगो ने 16 वर्षीय स्विडिस लड़की ग्रेटा थंगबर्ग पर्यावरण कार्यकर्ता के साथ पर्यावरण को बचाने की मुहिम चलाई थी । जिसे पूरी दुनिया के लोगो ने समर्थन दिया । आज हम जिस दौर में है, प्रदूषित हो रहे पर्यावरण गंभीर समस्या के रुप में उभर रही है। जिस रफ्तार से हम ससांधनो का दोहन करके आगे बढ़ रहे हैं। पर्यावरण को उससे दूगनी तेजी से क्षति भी पहुँचा रहे है। हालाँकी लोग अपने अपने स्तर से पर्यावरण को संरक्षित करने में लगे हुए है। दुनिया मे कुछ जनजातिय समुदाय है,जो सदियों से पर्यावरण कि रक्षा करते आ रहे है। ये लोग सांस्कृतिक रुप से खुद को पर्यावरण से जोडे़ हुए है और उनकी रक्षा में लगे हुए हैं।
भले ही दुनिया, आज प्रकृति को बचाने के लिए सड़क पर उतर कर आंदोलन कर रही हो, क्योटो प्रोटोकॉल जैसी सबमिट कर रही हो।।इन सबके बावजूद आदिवासी समुदाय अपने संस्कृति के जरिए सदियों से प्रर्यावरण को बचाते आ रही हैं। जहां विश्व के तमाम देशों में लोकतंत्र के जरिए लोगों को अधिकार देने की बात की जाती है वहीं दूसरी ओर ,संथाल आदिवासी लोगों के अधिकार के साथ साथ पशुओं- पक्षियों की अधिकार की बात करता है। विश्व में संथाल आदिवासी पर्यावरण केंद्रीत लोकतांत्रिक समाज की बात करता है।
सथांल आदिवासी ( भारत,नेपाल और बांग्लादेश में पाए जाने वाले जनजातिंय समुदाय है ) का जंगल से सदियों से नाता रहा है।इनकी संस्कृति में पर्यावरण संरक्षण कि झलक देखी जाती है। सथांल लोगो ने अपने गोत्र य़ा सरनेम का नमांकरण किसी जीव जंतु और पेड-पौधो के अनुरूप रखा है। इनकी मान्यता के अनुसार जिनका गोत्र या सरनेम उस जीव जंतु और पेड-पौधे से जुडा है ।वे उनको अपने परिवार के सदस्य का मानते है। जितना महत्व परिवार के एक सदस्य का होता है ,उतना ही महत्व उससे जुडे जीव-जंतु और पेड़-पौधे का होता है। उनकी रक्षा भी करते है। ये लोग जंगल से सिर्फ उतनी ही चीजों को लेते हैं जितना इन्हें जरुरत होती है। य़े वाणिज्यिक प्रयोजन के लिए वनों का उपयोग नही करते है।
सथांल आदिवासीयों का जंगल मे शिकार करने को लेकर खास मान्यता है। ये किसी खास अवधि में ही शिकार को जाते हैं। जब जंगल मे जीव-जन्तुंओ का प्रजनन काल होता हैं तब ये शिकार करने नही जाते हैं। देखा जाए तो यह वैज्ञानिक दृष्टि सही भी है क्योंकि इस वक्त जीव जन्तुंओ के लिए खाने कि उपलब्धता (फूड वेब) ज्यादा होती है और प्राकृतिक में संतुलन बनाये रखने के लिए यह जरूरी भी है।
शिकार करना और खेती करना संथाल आदिवासियों का मुख्य पेशा है। शिकार में जाते वक्त ये लोग अपने साथ कुत्ते को ले जाते हैं, शिकार के दौरान जो कुछ भी हाथ लगता है ,शाम मे उसका बँटवारा किया जाता है। बँटवारे का एक हिस्सा उस कुत्ते को भी दिया जाता है जो उनके साथ गया था। जानवरों के साथ किसी तरह का भेदभाव नही करते हुए उसका अधिकार देना, इस चीज को दर्शाता है कि सथांल समाज एक पर्यावरण केद्रिंत लोकतांत्रिक समाज है।
दुनिया आज पेटा(People for the Ethical Treatment of Animals ,PETA) जैसे संगठन बना रही है लेकिन आदिवासी समुदाय सदियों से पशुओं और पक्षियों के साथ ताल मेल बना कर इस पृथ्वी पर रह रहे हैं। संथाल आदिवासी में पशुओं को बराबरी का हक दिया जाता है। सथांल आदिवासी प्रकृति कि पूजा करते है। सरहुल या बहा संथाल आदिवासियों का एक मुख्य त्यौहार है। जिसमें ये लोग खास तौर पर प्रकृति की पूजा करते हैं। संथाल आदिवासियों का सभी त्यौहार प्रकृति से जुड़ा हुआ है ।
सथांल आदिवासी जो अपने मूल रूप मे है, परमात्मा को निर्गुण ( परमात्मा का कोई आकार नही होता है ) रुप मे पुजते हैं। इनके समाज मे मूर्ति कि पूजा नही कि जाती है। कुछ सथांल आदिवासी जो ईसाई धर्म को मानने लगे हैं वे लोग ही मूर्ति पूजा करते है। हलाकि, समाज मे कुछ गलतफहमियां फैली हैं कि जो लोग ईसाई धर्म या किसी दूसरे धर्म को अपना लिए है ,वे अपनी आदिवासियता खत्म य़ा भूल चुके हैं, जबकि वास्तविकता कुछ ओर हैं उन्होनें सिर्फ अपने परमात्मा को पूजने का तरीका बदला हैं उन्होने अपनी संस्कृति नही बदली हैं। खान-पान ,रहन-सहन ,पहनावा मे कोई बदलाव नही हैं।समाजशास्त्र मे कहा जाता है धर्म संस्कृति का एक छोटा सा हिस्सा है।किसी भी समाज के लिए उसकी संस्कृति मायने रखती हैं, ना कि धर्म ।प्रकृति के साथ सामंजस्य बना कर रखना सथांल आदिवासियो कि संस्कृति मे हैं।संथाल आदिवासी चाहे दुनिया के किसी भी कोने हो वो हमेशा प्रकृति से जुड़े हुए रहते हैं।
कुछ साल पहले पथलगड़ी को लेकर झारखंड का खुंटी जिला काफी चर्चा में रहा था। पथलगड़ी का मामला चाहे कुछ भी रहा हो लेकिन पथलगड़ी की सच्चाई का एक पक्ष यह भी है कि आदिवासी जंगल को बचाने के लिए पथर को जमीन में गाड़ कर लोगों को यह संकेत देते हैं कि यह क्षेत्र आदिवासियों कि देख-रेख में है।संथाल आदिवासी इसे राखा( पेड़ पोधो की रख रखाव) कहते हैं जबकि मुंडा आदिवासी, इसे पथलगड़ी कहते हैं।
संथाल आदिवासीयों में खेती करने को लेकर एक मान्यता यह है कि ये फसल उगाते वक्त बीज को ज्यादा मात्रा (मतलब अगर दस किलो ग्राम बीज पुरे खेत में लगते हैं तो ये ग्यारह किलो ग्राम बीज उस खेत में बोयेगें) में खेत में बोते है। इसके पीछे का कारण यह कि पक्षियों द्वारा बीज या फसल का चुग जान हैं। कई बार पक्षी फसल के साथ साथ फसल में लगने वाले किडे़ मकोड़े को भी खा जाते हैं, जिससे फसल खराब होने से बच जाता है। इस तरह से पंक्षी इनके फसलों की रक्षा भी करते हैं और ये लोग अपने आसपास से जुड़े रहने वाले पशु-पक्षियों का भी अच्छा खासा ध्यान रखते हैं।
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